बड़े बनो लेकिन अपना बड़प्पन किसी को दिखाओ मत--। संत रविदास ।

रविदास , कबीर दास, रहीम दास, मीराबाई, सूरदास, तुलसीदास यह भारत की ऐसी संत विभूतियां है जिनके आध्यात्म से भारत संपूर्ण विश्व में अपने आपको गौरवान्वित कर रहा है।
संतो की इस धरती पर रविदास जी का नाम बड़े आदर और सम्मान के साथ लिया जाता है। जाति से निम्न होने के बावजूद भी उन्होंने समाज सेवा का कार्य अपने कर्म के साथ बड़े ही सहज रूप से किया चर्म कार्य का करते थे। लेकिन जो आध्यात्मिक ज्ञान, दार्शनिक ज्ञान उनके पास था, जो भक्ति उनके पास थी। किसी साधारण इंसान के पास हो पाना नामुमकिन है।उनका सहज सरल भाव उन्हें हमेशा एक परम संत बनाते हैं। दार्शनिकता कूट कूट कर भरी थी, तथा भक्ति उनके अंदर रग रग में समाई थी। वह चमत्कारों की बरसात भी कर सकते थे। लेकिन उन्होंने इतना सब कुछ होने के बावजूद भी अपना बड़प्पन अपना बड़प्पन नहीं दर्शाया। हमेशा सरल और दयालु रहे। उन्होंने प्रति व्यक्ति को कर्म करने के लिए प्रेरित किया और अच्छे कर्म की ओर आगे बढ़ने के लिए कहा, उन्होंने कहा कि जात पात से कोई व्यक्ति ऊंचा नहीं हो जाता व्यक्ति अपने कर्म से ऊंचा या महान बनता है इसलिए हमें अपने कर्मों का ध्यान करना चाहिए। क्योंकि भगवान को चापलूसी नहीं अच्छे और सच्चे कर्म पसंद है। भगवान बड़प्पन नहीं सरलता और दयालुता, विनम्रता को पसंद करते हैं। व्यक्ति किसी भी जाति, पंथ, धर्म, संप्रदाय में पैदा हो। लेकिन अगर उसमें अच्छे और सच्चे कर्मों की समझ है और अच्छे सच्चे कर्म करते हुए जीवन यापन करता है तो निश्चय ही एक दिन वह महान संत की परिभाषा को प्राप्त कर लेता है। कुछ ऐसा ही एक दृष्टांत संत रविदास जी के संदर्भ में आता है कहते हैं कि
एक दिन संत रैदास (‍रविदास) अपनी कुटिया में बैठे प्रभु का स्मरण करते हुए कार्य कर रहे थे, तभी एक ब्राह्मण रैदासजी की कुटिया पर आया और उन्हें सादर वंदन करके बोला कि मैं गंगाजी स्नान करने जा रहा था, सो रास्ते में आपके दर्शन करने चला आया।
रैदासजी ने कहा कि आप गंगा स्नान करने जा रहे हैं, यह एक मुद्रा है, इसे मेरी तरफ से गंगा मैया को दे देना। ब्राह्मण जब गंगाजी पहुंचा और स्नान करके जैसे रुपया गंगा में डालने को उद्यत हुआ तो गंगा नदी में से गंगा मैया ने जल में से अपना हाथ निकालकर वह रुपया ब्राह्मण से ले लिया तथा उसके बदले ब्राह्मण को एक सोने का कंगन दे दिया।
ब्राह्मण जब गंगा मैया का दिया कंगन लेकर लौट रहा था तो वह नगर के राजा से मिलने चला गया। ब्राह्मण को विचार आया कि यदि यह कंगन राजा को दे दिया जाए तो राजा बहुत प्रसन्न होगा। उसने वह कंगन राजा को भेंट कर दिया। राजा ने बहुत-सी मुद्राएं देकर उसकी झोली भर दी।
ब्राह्मण अपने घर चला गया। इधर राजा ने वह कंगन अपनी महारानी के हाथ में बहुत प्रेम से पहनाया तो महारानी बहुत खुश हुई और राजा से बोली कि कंगन तो बहुत सुंदर है, परंतु यह क्या एक ही कंगन, क्या आप बिल्कुल ऐसा ही एक और कंगन नहीं मंगा सकते हैं।राजा ने कहा- प्रिये ऐसा ही एक और कंगन मैं तुम्हें शीघ्र मंगवा दूंगा। राजा से उसी ब्राह्मण को खबर भिजवाई कि जैसा कंगन मुझे भेंट किया था वैसा ही एक और कंगन मुझे तीन दिन में लाकर दो वरना राजा के दंड का पात्र बनना पड़ेगा। खबर सुनते ही ब्राह्मण के होश उड़ गए। वह पछताने लगा कि मैं व्यर्थ ही राजा के पास गया, दूसरा कंगन कहां से लाऊं? इसी ऊहापोह में डूबते-उतरते वह रैदासजी की कुटिया पर पहुंचा और उन्हें पूरा वृत्तांत बताया कि गंगाजी ने आपकी दी हुई मुद्रा स्वीकार करके मुझे एक सोने का कंगन दिया था, वह मैंने राजा को भेंट कर दिया। अब राजा ने मुझसे वैसा ही कंगन मांगा है, यदि मैंने तीन दिन में दूसरा कंगन नहीं दिया तो राजा मुझे कठोर दंड देगा रैदासजी बोले कि तुमने मुझे बताए बगैर राजा को कंगन भेंट कर दिया। इसका पछतावा मत करो। यदि कंगन तुम भी रख लेते तो मैं नाराज नहीं होता, न ही मैं अब तुमसे नाराज हूं। रही दूसरे कंगन की बात तो मैं गंगा मैया से प्रार्थना करता हूं कि इस ब्राह्मण का मान-सम्मान तुम्हारे हाथ है। इसकी लाज रख देना। ऐसा कहने के उपरांत रैदासजी ने अपनी वह कठौती उठाई जिसमें वे चर्म गलाते थे। उसमें जल भरा हुआ था। उन्होंने गंगा मैया का आह्वान कर अपनी कठौती से जल छिड़का तब गंगा मैया प्रकट हुई और रैदास जी के आग्रह पर उन्होंने एक और कड़ा ब्राह्मण को दे दिया। ब्राह्मण खुश होकर राजा को वह कंगन भेंट करने चला गया और रैदासजी ने अपने बड़प्पन का जरा भी अहसास ब्राह्मण को नहीं होने दिया। ऐसे थे महान संत रविदास।

इसीलिए हमारे संत कहते भी हैं बड़े बड़ाई ना करें बड़े न बोले बोल। रहिमन हीरा कब कहे लाख टका मेरा मोल।।

चतरसिंह गेहलोत
निवाली बड़वानी
9993803698

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