शायरी

रख भी सकता था नुमाइश में सजा कर मुझको,
दर्द की तरह रखा जिसने छुपा कर मुझको.

मेरी चाहत थी पसीने की कमाई जैसी,
मुफ़लिसी में भी रखा उसने बचा कर मुझको.

इतना मशगूल रहा बेखुदी के आलम में,
लोग ले जाते रहे मुझसे चुराकर मुझको.

मैं समन्दर ही रहा ढल ना सका दरिया में,
बारहा देख लिया सबने रुला कर मुझको.

वो अंधेरों का सफ़र तय कभी नहीं करता ,
राह में देख जो लेता वो जला कर मुझको.

गम मेरे दूर करेगा ये उसने कह तो दिया,
देर तक रोता रहा वो भी हंसा कर मुझको.

सोच मेरा था वो तड़पेगा मेरी यादों में ,
उसका दावा था जियेगा वो भुला कर मुझको.

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